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• Sat, 9 Mar 2024 11:14 am IST


क्यों गलत है मनुस्मृति से सीख लेने की सलाह


झारखंड हाईकोर्ट ने पिछले दिनों एक फैसले में कहा कि महिला का दायित्व है वह अपनी सास और दादी सास की सेवा करे। अदालत ने यह भी कहा कि वह अलग रहने की गैर-वाजिब मांग न करे। हाईकोर्ट की इस टिप्पणी पर खासी चर्चा है। महिलाओं के समान अधिकार क्या अभी भी कुचले जा रहे हैं? एक महिला के अधिकार और कर्तव्य क्या हैं? अदालत में जब ऐसे सवाल उठते हैं तो फिर इसके मानक भी देखे जाने चाहिए।

मनुस्मृति का हवाला : हाईकोर्ट के सामने दरअसल एक महिला ने गुजारा भत्ता दिलाने की मांग की थी और कहा था कि वह पति और ससुराल से अलग रहना चाहती है। कोर्ट ने कहा कि महिला इस मामले में अपने पति पर दबाव नहीं बना सकती और न ही यह गैर-वाजिब मांग कर सकती है कि उसे अलग रहने दिया जाए। कोर्ट ने यजुर्वेद और मनुस्मृति के साथ-साथ मौलिक कर्तव्य का हवाला दिया और कहा कि नागरिकों का दायित्व है, वे अपनी समृद्ध विरासत और संस्कृति को अक्षुण्ण रखें। अदालत के मुताबिक, भारत की यह संस्कृति है कि उम्रदराज सास और दादी सास की सेवा की जाए। ऐसे में महिला की ऐसे ससुरालियों से अलग रहने की जिद गैरवाजिब है।


मामला भरण-पोषण का : झारखंड हाईकोर्ट की टिप्पणी पर चर्चा इसलिए भी है कि उसने एक शादीशुदा महिला के दायित्व गिनाते हुए यजुर्वेद, ऋग्वेद और मनुस्मृति के उद्धरण दिए, जबकि यह मामला भरण-पोषण से संबंधित था। अदालतों से अपेक्षा होती है कि वे नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगी। जाहिर है, महिलाओं के दायित्व को संवैधानिक कसौटियों पर कसा जाना चाहिए, लेकिन मसला यहां व्यक्तिपरक नैतिकता से जुड़ गया।

सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश : देश में महिलाओं को प्रोटेक्ट करने के लिए तमाम कानून बनाए गए हैं। वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलें, इसके लिए भी कई कानून हैं। सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों के जरिए कई बार रूढ़िवादी सोच को खारिज कर नजीर पेश कर चुका है। शफीन जहां केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि लड़की बालिग है और 24 साल की है तो अपने जीवन के बारे में फैसला कर सकती है। संविधान इसकी इजाजत देता है कि वह जैसे चाहे जीने का निर्णय ले सकती है। ऐसे ही एडल्टरी (बेवफाई) कानून को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह महिला को पति के गुलाम और संपत्ति की तरह देखता है। शीर्ष अदालत के मुताबिक, आदर्श स्थिति तो यही है कि पति और पत्नी एक दूसरे के प्रति वफा रखें। लेकिन शादी के बाद महिला को गुलाम या जागीर नहीं समझता जा सकता।

सोच बदलने की जरूरत : पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने जजों को अदालती फैसलों में जेंडर स्टिरियोटाइप शब्दों के इस्तेमाल से परहेज करने को कहा था। इसके लिए हैंडबुक जारी किया गया था। इसमें कहा गया था कि एक गलत रूढ़िवादी सोच है कि महिलाएं पुरुष के अधीन हैं। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि भारत का संविधान सभी जेंडर के लोगों को समान अधिकार की गारंटी देता है तो फिर महिलाओं को पुरुष के अधीन रहने की जरूरत क्यों होनी चाहिए?

घर का काम : महिलाएं ही घर का सारा काम करें यह रूढ़िवादी सोच भी क्यों हो? सबको मिलकर घर का काम करना चाहिए। यह भी रूढ़िवादी सोच है कि अपने पति के पैरंट्स की देखभाल करना महिला की जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी परिवार के सभी सदस्यों की है कि बुजुर्ग माता-पिता की सही ढंग से देखभाल की जाए।

लिव इन में भी प्रोटेक्शन : महिलाओं को तमाम अधिकार दिए गए हैं। गर्भ से लेकर मायके तक और पति के घर से लेकर दफ्तर तक हर स्टेज पर महिलाओं को प्रोटेक्ट किया गया है और उन्हें बराबरी का दर्जा दिया गया है। लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं को डीवी एक्ट के तहत प्रोटेक्शन मिला हुआ है। महिला को मां बनने का अधिकार है। इस अधिकार से उसे वंचित नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट अपने एक अहम फैसले में कह चुका है कि बेटी को पैतृक संपत्ति में बेटे के बराबर का अधिकार है।

फौज में भी बराबरी : 17 मार्च 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में भारतीय नेवी महिला ऑफिसरों के परमानेंट कमिशन देने का रास्ता साफ कर दिया। उस फैसले में भी कोर्ट ने कहा था कि महिलाओं को समान अवसर देना जरूरी है। जहां एक तरफ महिलाएं फौज में पुरुषों के बराबर की कतार में आ चुकी हैं वहीं दूसरी तरफ संसद में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए 33 फीसदी रिजर्वेशन देने का प्रावधान कर दिया गया है। ऐसे में क्या यह माना जा सकता है कि लड़की की मांग में सिंदूर लगते ही उसका दर्जा बदल जाएगा या उसकी पहचान बदल जाएगी या उसकी जिम्मेदारियों का बोझ अचानक पुरुषों से ज्यादा हो जाएगा?

शादी से नहीं बदलता दर्जा : हकीकत तो यह है कि शादी के बाद महिला ज्यादा प्रोटेक्ट होंगी। उन्हें तमाम अधिकार दिए गए हैं और उन्हें बराबरी का दर्जा प्राप्त है। हमें भारतीय संविधान की भावनाओं के अनुरूप ही अपनी सोच को विकसित करना होगा। याद रखने की जरूरत है कि भारत के संविधान को लागू हुए 74 साल हो चुके हैं। ऐसे में हमें संविधान के जरिये आगे का रास्ता तय करना होगा। अगर हम मुद्दे को पौराणिक कथन और परंपरा की कसौटियों पर कसेंगे तो यह महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित करने जैसा होगा। ऐसी कोशिश गैर-वाजिब तो होगी ही, जाने अनजाने देश को को पीछे की ओर ले जाएगी।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स