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• Wed, 10 Apr 2024 11:23 am IST


बच्चों से उनका अधिकार न छीनें


खबर दिल्ली के एक नामी स्कूल की थी, जिसने नए सत्र में कुछ बच्चों को फीस जमा न करने के कारण वापस घर भेज दिया। परेशान पैरंट्स ने स्कूल पहुंचकर हंगामा कर दिया तो पुलिस बुलानी पड़ी। अभिभावकों का कहना था कि उनके बच्चों का एडमिशन EWS कोटे के तहत हुआ है, जिसमें फीस को लेकर स्कूल ऐसी मनमानी नहीं कर सकता।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत EWS यानी आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के छात्रों के लिए प्राइवेट स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें रखनी ज़रूरी हैं। एडमिशन न देने वाले स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। इसके बावजूद हर साल नए सत्र से पहले ऐसी खबरें आती रहती हैं कि कम आय वर्ग के छात्रों को दाखिले के लिए स्कूल भटका रहे हैं या अतिरिक्त फीस भरने के लिए बाध्य कर रहे हैं।

बात इस कोटे के तहत दाखिले तक ही सीमित नहीं है। कुछ दिनों पहले एनसीआर के एक निजी स्कूल ने तो फीस न भरने पर कुछ छात्रों को परीक्षा देने से ही रोक दिया। यह उन बच्चों के साथ कितनी ज्यादती थी जो दिन रात मेहनत करके परीक्षा की पूरी तैयारी करके वहां पहुंचे होंगे। स्कूल के गेट से लौटा दिए गए उन मासूमों का आखिर क्या कसूर? उनकी साल भर की मेहनत पर पानी फेरने का अधिकार उस स्कूल को किसने दिया? अपनी बात रखने का कोई और रास्ता तलाश सकते थे ये स्कूल। बच्चों को यूं सज़ा देने का क्या मतलब। उनके अधिकार से उन्हें वंचित करना तो बेहद गलत और शर्मनाक है।

दिल्ली समेत देश के कई उच्च न्यायालय कह चुके हैं कि फीस न भर पाने की वजह से किसी भी छात्र को परीक्षा देने से रोका नहीं जा सकता। लेकिन कोर्ट के ऐसे आदेशों का असर ज़मीन पर कम ही देखने को मिलता है।

राज्य सरकारों ने भी गाइडलाइंस बनाई हुई हैं कि प्राइवेट स्कूल एक तय सीमा तक ही फीस में बढ़ोतरी कर सकते हैं। लेकिन इन दिशानिर्देशों को धता बता तमाम स्कूल हर साल फीस में कई गुना बढ़ोतरी कर देते हैं, जो बहुत से अभिभावकों पर भारी पड़ जाता है। स्कूल से ही किताबें और यूनिफॉर्म खरीदने का दबाव अलग। साल में दो महीने स्कूल बंद रहने के दौरान भी ट्रांसपोर्ट फीस में कोई रियायत नहीं। इसके अलावा भी साल भर किसी न किसी मद में रकम वसूली चलती ही रहती है। कभी किसी फंक्शन के लिए तो कभी किसी और नाम पर।

कुछ लोग तर्क देते हैं कि जब इतनी फीस भरने में सक्षम नहीं तो ऐसे स्कूलों में अपने बच्चों को क्यों डालते हैं, क्यों नहीं उन्हें किसी सस्ते या सरकारी स्कूल में पढ़ाते हैं? सवाल यह है कि हममें से कितने लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं। सरकारी स्कूलों की कायापलट का दावा कर राजनीति चमकाने वाले नेता भी अपने बच्चों को वहां नहीं पढ़ाते। उनके बच्चे तो देश-विदेश के नामी स्कूल और यूनिवर्सिटी जाते हैं। अगर एक आम आदमी ऐसा सपना देखता है तो इसमें क्या बुराई है?

हर एक की तमन्ना होती है, अपने बच्चे को अच्छी से अच्छी तालीम देने की। क्षमता न होने के बावजूद कितने लोग खर्चों में कटौती और ओवरटाइम कर बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने की कोशिश करते हैं। अपने आसपास ऐसे कई लोगों को संघर्ष करते देखता हूं जो लोन लेकर बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवा रहे हैं। कई बार तो उन्हें यह भी नहीं पता होता कि अगले क्वार्टर की फीस कैसे भरेंगे। इसके लिए देर रात दूसरे कई काम कर अतिरिक्त कमाई की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। सिर्फ इसलिए कि बच्चा अच्छा पढ़ लिखकर कुछ बन जाए। जीवन में कोई बड़ा मुकाम हासिल कर पाए। अपने बच्चे के साथ स्कूल की ऐसी ज्यादती पर वह कितना टूट जाता होगा।

हर साल वाली कहानी फिर दोहराई जा रही है। अखबार हैं तो इनका दर्द सामने भी आ जाता है वरना और कहीं तो ऐसी खबरों को कभी जगह ही नहीं मिल पाती। उम्मीद है ज़िम्मेदारों की नज़र अखबार के इन पन्नों पर ज़रूर पड़ रही होगी।


सौजन्य से : नवभारत टाइम्स