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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 21 Sep 2022 11:56 am IST


पैसा खुदा तो नहीं, लेकिन...


कहते हैं पैसा बहुत बुरी चीज है। लेकिन इसका ठीक उलटा कहा था राजनीति के एक चुतर खिलाड़ी ने, जो एक पूर्व रियासत के पूर्व राजा तो थे ही, उस समय केंद्रीय मंत्री पद पर भी विराजमान थे। उनके बहुचर्चित शब्द थे, ‘पैसा खुदा तो नहीं, लेकिन खुदा कसम, खुदा से कम भी नहीं।‘ हालांकि उनके नाम के साथ इन शब्दों के बाहर आ जाने के बाद उनकी जो गत हुई, उससे इस बात पर बहस की पूरी गुंजाइश बन गई कि वह राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे भी या नहीं और अगर थे भी तो कितने। इस प्रकरण ने कुल मिलाकर एक बार फिर उनकी बात को गलत ही साबित किया। यानी इससे यह तो नहीं साबित हुआ कि पैसा खुदा या खुदा से कम ज्यादा कुछ है, यह जरूर साफ हो गया कि वह अच्छे भले चल रहे राजनीतिक करियर का भट्ठा बैठा सकता है।

बहरहाल, पैसे को बुरा बताने वाली पारंपरिक, पारिवारिक सोच से जुड़े या खुद को इससे जुड़ा मानने वाले लोगों पर नजर डालें तो उनके निष्कर्ष के पीछे दो बातें दिखती हैं। एक तो यह कि कैसे पैसा या संपत्ति पारिवारिक मूल्यों का सत्यानाश कर देती है। जो भाई बचपन में एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे, वही जमीन-जायदाद के झगड़े में एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। दूसरा कारक है वंचित महसूस करना। ऐसे बंटवारों या विवादों में जिस पक्ष के हाथ कुछ नहीं आता या जिसे ऐसा लगता है कि दूसरों ने छल-प्रपंच वगैरह के जरिए उसे उसके हक से वंचित कर दिया, उसी के मुंह से ये ज्ञानात्मक सूक्तियां निकलती हैं। जिसने अपने हक के रूप में या दूसरों का हिस्सा मारकर भी संपत्ति का बड़ा हिस्सा हासिल कर लिया होता है, उसे फुरसत नहीं होती इन बातों पर सोचने की। यानी कह सकते हैं कि यह अंगूर खट्टे हैं वाला दर्शन है।

क्या सचमुच ऐसा है? जिन्हें अंगूर मिल जाते हैं उनकी भी हालत कई बार इससे उलटा संदेश देती हुई जान पड़ती है। अमीर घरानों में जब संपत्ति को लेकर झगड़ा होता है और कोई एक मारा जाता है तो दूसरा जेल चला जाता है, (बड़े शराब कारोबारी परिवार में ही नहीं ऐसी घटनाएं अलग-अलग रूपों में हमारे आसपास भी दिख जाती हैं) तो यही दर्शन किसी न किसी के मुंह से सुनने को मिलता है जो विचित्र या असंगत नहीं लगता। मजे की बात यह कि इस दर्शन के इन समर्थकों को मौका मिल जाए तो ये भी मोटा हाथ मारने से शायद ही चूकना चाहें। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि किसी जमाने का यह नीति वाक्य अब खुद को भरमाए रखने का या लड़ाई हार चुके लोगों के लिए खुद को दिलासा देने का एक साधन मात्र है? शायद हां। कम से कम तब तक के लिए तो जरूर, जब तक कि किसी अमीर और जीते हुए व्यक्ति की हताशा सामने नहीं आ जाती।
 सौजन्य से : नवभारत टाइम्स