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• Thu, 25 Apr 2024 11:04 am IST


पैरों में लगा आलता


घर में शादी हो या कथा, नवरात्र हो या वसंत, अगर पैरों में आलता नहीं लगा है तो माना जाता है कि संपूर्ण शुभता नहीं आ सकती। वैसे तो आलता या महावर बहुत छोटी सी चीज है। गाढ़ा गुलाबी रंग ही तो, जिससे पैरों में तरह-तरह की डिजाइन बनाई जाती है। इसके बगैर स्त्री का सोलह श्रृंगार पूरा नहीं होता है। यूपी हो या बिहार, बंगाल हो या ओडिशा या फिर असम, आलता लगाए बगैर न तो दुल्हन पूरी मानी जाती है और न ही दूल्हा। आलता तो दोनों को लगाना होता है, चाहे कम लगाएं, चाहे ज्यादा। आलता संस्कृत का शब्द है, पर यह संस्कृत से सीधे हिंदी में नहीं आया। संस्कृत में इसे लक्ष्य रस भी कहा जाता है तो अलक्तक भी। इसी अलक्तक से आलता सबसे पहले बंगाली जमीन पर उतरा। वहां से इसने असम, ओडिशा होते हुए लगभग संपूर्ण उत्तर भारत में लोगों चरण कमल बनाए। लक्ष्य रस इसे इसलिए कहा जाता था क्योंकि पहले यह लाख से तैयार किया जाता था।

बाद में यह चुकंदर के पत्ते, सिंदूर और कुमकुम पाउडर से बनाया जाने लगा, और अब तो अक्सर सब जगह केमिकल वाला रंग ही मिलता है। जानकार लोग बंगाल और ओडिशा का बना आलता ही लेते हैं, क्योंकि वहां अभी भी इसे परंपरागत रूप से तैयार किया जाता है। आलता कोई आज का नहीं है। ऐसी कई पुरानी तस्वीरें हैं, जिसमें श्रीकृष्ण राधा के पैरों में आलता लगाते दिखते हैं। कथक, भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, मणिपुरी से लेकर असम का बिहू डांस भी बगैर आलता के अधूरा माना जाता है। आलता के इंग्लिश में red colour के अलावा और कुछ नहीं है। आलता शुभ है, इसलिए यह हम भारतीयों के लिए रंग और धर्म से भी कहीं ज्यादा है। हिंदू हों या मुसलमान- शुभ कर्मों में आलता तो दोनों ही लगाते हैं।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स